जब हम भारत की बात करते हैं, तो गंगा नदी का ज़िक्र खुद-ब-खुद जुबां पर आ जाता है। गंगा सिर्फ एक जलधारा नहीं है — ये एक भावना है, एक इतिहास है, और करोड़ों लोगों के जीवन की धड़कन भी।
गंगा का उद्गम उत्तराखंड के गंगोत्री ग्लेशियर से होता है, जहां इसे भागीरथी के नाम से जाना जाता है। कहते हैं, राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए इस पवित्र नदी को धरती पर लाने के लिए वर्षों तप किया था। शायद इसी वजह से गंगा को “भागीरथी” भी कहा जाता है।

गंगा करीब 2,500 किलोमीटर का सफर तय करती है — हिमालय की बर्फीली वादियों से लेकर बंगाल की खाड़ी तक। इसके किनारे बसे शहर जैसे हरिद्वार, वाराणसी, प्रयागराज और कोलकाता, न सिर्फ सांस्कृतिक रूप से समृद्ध हैं, बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी जग प्रसिद्ध हैं।
हर सुबह वाराणसी के घाटों पर जब सूरज की पहली किरणें गंगा की लहरों पर पड़ती हैं, तो वो नज़ारा आत्मा को छू जाता है। शाम की आरती में जब घंटियों की आवाज़ और दीपों की रोशनी गंगा के पानी से टकराती है, तो लगता है जैसे खुद समय ठहर गया हो।
गंगा सिर्फ आध्यात्म का स्रोत नहीं है, बल्कि जीवनदायिनी भी है। करोड़ों लोग इसके पानी पर निर्भर हैं — पीने के लिए, खेती के लिए, और रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए। यह नदी भारत के कृषि और आर्थिक ढांचे की रीढ़ है।
लेकिन पिछले कुछ दशकों में गंगा प्रदूषण की मार झेल रही है। फैक्ट्रियों का अपशिष्ट, शहरों का कचरा और असंवेदनशीलता ने इस पवित्र धारा को तकलीफ दी है। हालाँकि “नमामि गंगे” जैसे अभियानों ने सफाई और संरक्षण की ओर एक महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया है, लेकिन असली बदलाव तो तब आएगा जब हर नागरिक गंगा को मां की तरह माने और उसका ध्यान रखे।
गंगा हमें सिर्फ पानी नहीं देती, ये हमें जोड़ती है — धर्म से, संस्कृति से, प्रकृति से और आपसी भावना से। यह नदी भारत के इतिहास की गवाह रही है — ऋषियों के तप, संतों की साधना, और आम लोगों की आस्था की।
आज जब हम आधुनिकता की तरफ बढ़ रहे हैं, तो जरूरी है कि हम अपनी जड़ों को भी संभाल कर रखें। गंगा को बचाना सिर्फ एक नदी को बचाना नहीं है — ये हमारी सभ्यता, संस्कृति और पहचान को बचाना है।
गंगा बहे… बस स्वच्छता और श्रद्धा के साथ।